इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
उस से आँखें लगीं तो ख़्वाब कहाँ
(सब्र-ओ-ताब = धैर्य और शक्ति)
हस्ती अपनी है बीच में पर्दा
हम न होवें तो फिर हिजाब कहाँ
(हस्ती = अस्तित्व, उपस्तिथि), (हिजाब = पर्दा)
इश्क़ है आशिक़ों के जलने को
ये जहन्नुम में है अज़ाब कहाँ
(जहन्नुम = नर्क), (अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट)
गिरिया-ए-शब से सुर्ख़ हैं आँखें
मुझ बलानोश को शराब कहाँ
(गिरिया-ए-शब से = रात के रोने-धोने से), (बलानोश = महा पियक्कड़, घोर शराबी)
इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद
ऐसे फिर ख़ानमाँख़राब कहाँ
(ख़ानमाँख़राब = बरबाद)
-मीर तक़ी मीर
इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:
बेकली दिल ही की तमाशा है
बर्क़ में ऐसे इज़्तिराब कहाँ
(बर्क़ = बिजली, गाज), (इज़्तिराब = व्याकुलता, बेचैनी, आतुरता)
महव हैं इस किताबी चेहरे के
आशिक़ों को सर-ए-किताब कहाँ
(महव = तन्मय, तल्लीन)
ख़त के आए पर कुछ कहें तो कहें
अभी मक्तूब का जवाब कहाँ
(मक्तूब = पत्र, चिट्ठी)
Ishq mein jee ko sabr-o-taab kahan
Us se ankhein lagi to khwaab kahan
Hasti apni hai beech main parda
Hum na howein to phir hijab kahan
Girya-e-shab se surkh hain aankhein
Mujh bala-nosh ko sharab kahan
Ishq hai aashikon ke jalne ko
Ye jahannum mein hai azaab kahan
Ishq ka ghar hai 'Mir' se aabaad
Aise phir khanumaan kharab kahan
-Mir Taqi Mir
उस से आँखें लगीं तो ख़्वाब कहाँ
(सब्र-ओ-ताब = धैर्य और शक्ति)
हस्ती अपनी है बीच में पर्दा
हम न होवें तो फिर हिजाब कहाँ
(हस्ती = अस्तित्व, उपस्तिथि), (हिजाब = पर्दा)
इश्क़ है आशिक़ों के जलने को
ये जहन्नुम में है अज़ाब कहाँ
(जहन्नुम = नर्क), (अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट)
गिरिया-ए-शब से सुर्ख़ हैं आँखें
मुझ बलानोश को शराब कहाँ
(गिरिया-ए-शब से = रात के रोने-धोने से), (बलानोश = महा पियक्कड़, घोर शराबी)
इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद
ऐसे फिर ख़ानमाँख़राब कहाँ
(ख़ानमाँख़राब = बरबाद)
-मीर तक़ी मीर
इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:
बेकली दिल ही की तमाशा है
बर्क़ में ऐसे इज़्तिराब कहाँ
(बर्क़ = बिजली, गाज), (इज़्तिराब = व्याकुलता, बेचैनी, आतुरता)
महव हैं इस किताबी चेहरे के
आशिक़ों को सर-ए-किताब कहाँ
(महव = तन्मय, तल्लीन)
ख़त के आए पर कुछ कहें तो कहें
अभी मक्तूब का जवाब कहाँ
(मक्तूब = पत्र, चिट्ठी)
Ishq mein jee ko sabr-o-taab kahan
Us se ankhein lagi to khwaab kahan
Hasti apni hai beech main parda
Hum na howein to phir hijab kahan
Girya-e-shab se surkh hain aankhein
Mujh bala-nosh ko sharab kahan
Ishq hai aashikon ke jalne ko
Ye jahannum mein hai azaab kahan
Ishq ka ghar hai 'Mir' se aabaad
Aise phir khanumaan kharab kahan
-Mir Taqi Mir
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