अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जिस्म से आग निकलती है, क़बा गीली है
(क़बा = एक प्रकार का लम्बा ढीला पहनावा, चोगा)
सोचता हूँ के अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी काँच के हैं, राह भी पथरीली है
पहले रग-रग से मेरी ख़ून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है के रंगत ही मेरी पीली है
(रग = नस, नाड़ी)
मुझको बे-रंग ही करदे न कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है, हवा सुर्ख़, फ़िज़ा नीली है
(सब्ज़ = हरियाली)
-मुज़फ़्फ़र वारसी
पूरी ग़ज़ल यहाँ पढ़ें : बज़्म-ए-अदब
Ab ke barsaat ki rut aur bhi bhadkili hai
Jism se aag nikalti hai, kabaa geeli hai
Sonchta hoon ke ab anjaam-e-safar kya hoga
Log bhi kaanch ke hain, raah bhi pathrili hai
Pehle rag-rag se meri khoon nichoda usne
Ab ye kehtha hai ke rangat hi meri peeli hai
Mujhko be-rang hi karde na kahin rang itne
Sabz mausam hai, hawa surkh, fizaan neeli hai
-Muzaffar Warsi
जिस्म से आग निकलती है, क़बा गीली है
(क़बा = एक प्रकार का लम्बा ढीला पहनावा, चोगा)
सोचता हूँ के अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी काँच के हैं, राह भी पथरीली है
पहले रग-रग से मेरी ख़ून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है के रंगत ही मेरी पीली है
(रग = नस, नाड़ी)
मुझको बे-रंग ही करदे न कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है, हवा सुर्ख़, फ़िज़ा नीली है
(सब्ज़ = हरियाली)
-मुज़फ़्फ़र वारसी
पूरी ग़ज़ल यहाँ पढ़ें : बज़्म-ए-अदब
Ab ke barsaat ki rut aur bhi bhadkili hai
Jism se aag nikalti hai, kabaa geeli hai
Sonchta hoon ke ab anjaam-e-safar kya hoga
Log bhi kaanch ke hain, raah bhi pathrili hai
Pehle rag-rag se meri khoon nichoda usne
Ab ye kehtha hai ke rangat hi meri peeli hai
Mujhko be-rang hi karde na kahin rang itne
Sabz mausam hai, hawa surkh, fizaan neeli hai
-Muzaffar Warsi
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