जीवन की डोर, छोर छूने को मचली
जाड़े की धूप स्वर्ण-कलशों से फिसली
अंतर की अमराई
सोई पड़ी शहनाई
एक दबे दर्द सी सहसा ही जगती
नई गाँठ लगती
दूर नहीं, पास नहीं, मंज़िल अजानी
साँसों की सरगम पर चलने की ठानी
पानी पर लकीर सी
खुली ज़ंजीर सी
कोई मृगतृष्णा मुझे बार-बार छलती
नई गाँठ लगती
मन में लगी जो गाँठ मुश्किल से खुलती
दाग़दार ज़िन्दगी न घाटों पर धुलती
जैसी की तैसी नहीं
जैसी है वैसी सही
कबिरा की चादरिया, बड़े भाग मिलती
नई गाँठ लगती
-अटल बिहारी वाजपेयी
जाड़े की धूप स्वर्ण-कलशों से फिसली
अंतर की अमराई
सोई पड़ी शहनाई
एक दबे दर्द सी सहसा ही जगती
नई गाँठ लगती
दूर नहीं, पास नहीं, मंज़िल अजानी
साँसों की सरगम पर चलने की ठानी
पानी पर लकीर सी
खुली ज़ंजीर सी
कोई मृगतृष्णा मुझे बार-बार छलती
नई गाँठ लगती
मन में लगी जो गाँठ मुश्किल से खुलती
दाग़दार ज़िन्दगी न घाटों पर धुलती
जैसी की तैसी नहीं
जैसी है वैसी सही
कबिरा की चादरिया, बड़े भाग मिलती
नई गाँठ लगती
-अटल बिहारी वाजपेयी
Alka Yagnik & Shankar Mahadevan
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