दोस्त ग़मख़्वारी में मेरी सई फ़र्मावेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ून न बढ़ जावेंगे क्या
हज़रत-ए-नासेह गर आयें दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यों सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जावेंगे क्या
ख़ानाज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं ज़न्जीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िन्दाँ से घबरावेंगे क्या
(ख़ानाज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ = ज़ुल्फ़ों का बंदी), (ज़िन्दाँ = क़ैदख़ाना)
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहे खावेंगे क्या
-मिर्ज़ा ग़ालिब
पूरी ग़ज़ल, अर्थ के साथ, यहाँ देखें मीर-ओ-ग़ालिब
Dost ghamkhwaari mein meri saee farmawenge kya
Zakham ke bharne talak nakhun na badh jaavenge kya
Hazrat-e-naaseh gar aayen, deeda-o-dil farsh-e-raah
Koi mujh ko ye to samjha do ki samjhawenge kya
Gar kiya naaseh ne hum ko qaid, achcha, yon sahi
Ye junoon-e-ishq ke andaaz chutt jawenge kya
Khanazaad-e-zulf hain, zanjeer se bhagenge kyon
Hain giraftar-e-wafaa, zindaan se ghabrawenge kya
Hai ab is mamoore mein qaht-e-gham-e-ulfat, 'Asad'
Hum ne ye maana ke Delhi mein rahein, khawenge kya
-Mirza Ghalib
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ून न बढ़ जावेंगे क्या
(ग़मख़्वारी = सहानुभूति, हमदर्दी), (सई = प्रयत्न, कोशिश, दौड़-धूप)
हज़रत-ए-नासेह गर आयें दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या
(हज़रत-ए-नासेह = उपदेशक महोदय), (दीदा-ओ-दिल = आँखे और दिल), (फ़र्श-ए-राह = रास्ते में बिछे हुए)
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यों सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जावेंगे क्या
(नासेह = धर्मोपदेशक), (जुनून-ए-`इश्क़ = प्रेम का उन्माद)
ख़ानाज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ हैं ज़न्जीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा ज़िन्दाँ से घबरावेंगे क्या
(ख़ानाज़ाद-ए-ज़ुल्फ़ = ज़ुल्फ़ों का बंदी), (ज़िन्दाँ = क़ैदख़ाना)
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहे खावेंगे क्या
(मा`मूरे = बस्ती), (क़हत-ए ग़म-ए-उल्फ़त = प्रेम के दुखों का अकाल)
-मिर्ज़ा ग़ालिब
पूरी ग़ज़ल, अर्थ के साथ, यहाँ देखें मीर-ओ-ग़ालिब
Dost ghamkhwaari mein meri saee farmawenge kya
Zakham ke bharne talak nakhun na badh jaavenge kya
Hazrat-e-naaseh gar aayen, deeda-o-dil farsh-e-raah
Koi mujh ko ye to samjha do ki samjhawenge kya
Gar kiya naaseh ne hum ko qaid, achcha, yon sahi
Ye junoon-e-ishq ke andaaz chutt jawenge kya
Khanazaad-e-zulf hain, zanjeer se bhagenge kyon
Hain giraftar-e-wafaa, zindaan se ghabrawenge kya
Hai ab is mamoore mein qaht-e-gham-e-ulfat, 'Asad'
Hum ne ye maana ke Delhi mein rahein, khawenge kya
-Mirza Ghalib
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