Tuesday 30 December 2014

Tasqeen-e-dil-e-mahzooN na hui, wo sai-e-karam farmaa bhi gaye/ तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू न हुई, वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू न हुई, वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिये, बहला भी गए तड़पा भी गए 

(तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू = दुखी/ व्यथित दिल को आराम) , (सई = प्रयत्न, कोशिश) , (करम = कृपा, अनुग्रह)

हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके कुछ सुन न सके
यां हम ने ज़बाँ ही खोली थी, वाँ आँख झुकी शर्मा भी गए 

(अर्ज़-ए-वफ़ा = वादा पूरा करने का निवेदन)

इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब ज़ाम-ब-क़फ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए

(महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती = ख़ुशी और आनंद की महफ़िल), (अंजुमन-ए-इरफ़ानी = ज्ञान की सभा), (ज़ाम-ब-क़फ = शराब का गिलास हाथ में लेकर बैठना) 

-मजाज़ लखनवी 


इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

अशुफ्तगी-ए-वहशत की कसम, हैरत की कसम, हसरत की कसम
अब आप कहे कुछ या न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए

(अशुफ्तगी-ए-वहशत = दीवानगी की घबराहट), (राज़-ए-तबस्सुम = मुस्कराहट का रहस्य)

रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन से, हम क्या कहते क्यूँकर कहते
एक हर्फ़ न निकला होटों से और आँख में आंसूं आ भी गए 

(रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत = प्यार के दर्द का विवरण/ कहानी), (हर्फ़ = शब्द)

अरबाब-ए-जुनूँ पे फ़ुरकत में, अब क्या कहिये क्या क्या गुज़रा
आये थे सवाद-ए-उल्फत में, कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए

(अरबाब-ए-जुनूँ = उन्माद की अवस्था में), (फ़ुरकत = वियोग/ जुदाई), (सवाद-ए-उल्फत = प्यार की गली)

ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है, क्या फ़िक्र है तुझ को ऐ साक़ी
महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई, कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए







Tasqeen-e-dil-e-mahzooN na hui, wo sai-e-karam farmaa bhi gaye
Is sai-e-karam ko kya kahiye, bahla bhi gaye tadpa bhi gaye

Hum arz-e-wafa bhi kar na sake, kuch keh na sake, kuch sun na sake
Yaan hamne zabaaN hi kholi thi, waan aankh jhuki sharma bhi gaye

Is mehfil-e-kaif-o-masti mein, is anjuman-e-irfaani mein
Sab jaam-ba-kaf baithe hi rahe, hum pee bhi gaye, chalkaa bhi gaye

-Majaz Lakhnawi

2 comments:

  1. Hum arz-e-wafa bhi kar na sake, kuch keh na sake, kuch sun na sake...***''''

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  2. क्या ख़ूब बहुत ख़ूबसूरत

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