यूँ तो मेरा इलाज क्या न हुआ
कम मरज़ ही मगर ज़रा न हुआ
मुझपे अहसाँ तबीब का न हुआ (तबीब = उपचारक, चिकित्सक)
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ (मिन्नत-कश-ए-दवा = दवा का आभारी)
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
दे ख़ुदा रहम इन हबीबों को (हबीब = मित्र, दोस्त, प्रिय)
के जलाएँ न बदनसीबों को
चलके सुन लो अलग जो सुनते हो
जमा करते हो क्यों रक़ीबों को (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी)
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ (गिला = शिकायत, उलाहना)
जान तावत ही में खपाई थी (तावत = उस अवधि तक, उस सीमा या हद तक, वहाँ तक)
कुछ ख़ुदी थी न ख़ुदनुमाई थी (ख़ुदनुमाई = अभिमानी/ घमंडी होने का भाव)
सर था, सजदा था, जब्बासाई थी (जब्बासाई = बंदगी के दौरान सर को जमीन पर टिकाना)
क्या वह नमरूद की ख़ुदाई थी (नमरूद = एक बादशाह जो अपनेआप को ख़ुदा कहता था)
बन्दगी में मिरा भला न हुआ
ढूँढता था वो इक न इक तरक़ीब
के मज़े हों तेरे लबों के नसीब
तू न समझे तो है ये बात अजीब
कितने शीरीं हैं तेरे लब, कि रक़ीब (शीरीं = मीठे), (लब = होंठ)
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ
हमने की फ़िक्र जब बुलाने की
उनको सूझी किसी बहाने की
अब सुनी है जो घर लुटाने की
है ख़बर गर्म उन के आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ (बोरिया = चटाई)
-मिर्ज़ा ग़ालिब/ नामालूम
इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:
हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ
(ख़ंजर-आज़मा = ख़ंजर आज़माने/ चलाने वाला)
जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवा न हुआ
(रवा = जारी)
रहज़नी है कि दिलसितानी है
ले के दिल दिलसितां रवाना हुआ
(रहज़नी = लूटमार, डकैती), (दिलसितां = माशूक़), (दिलसितानी = माशूक़ी)
कुछ तो पढ़ये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब ग़ज़लसरा न हुआ
(ग़ज़लसरा = ग़ज़ल सुनाने वाला)
https://www.youtube.com/watch?v=uPzmVo-j5GM&fbclid=IwAR39b1bMK0jaW1EfoXfVw7B9aoHMqxNc_1a6jXcCu28B4g6K7FHBdC-DiV0
Yoon to mera ilaaj kya na hua
Kam maraz hi magar zaraa na hua
Mujhpe ahsaan tabeeb ka na hua
Dard minnat-kash-e-dawa na hua
Main na achcha hua, buraa na hua
De Khuda reham in habeebon ko
Ke jalaayen na badnaseebon ko
Chalke sun lo alag jo sunte ho
Jamaa karte ho kyon raqibon ko
Ik tamasha hua gila na hua
Jaan taawat hi mein khapaai thi
Kuch khudi thi na khudnumaai thi
Sar tha, sajda tha, jabbasaai thi
Kya wo namarood ki khudai thi
Bandagi mein mera bhala na hua
Dhoondhta tha wo ik na ik tarqeeb
Ke mazen hon tere labon ke naseeb
Tu na samjhe to hai ye baat ajeeb
Kitne shirin hain tere lab, ke raqeeb
Galiyaan kha ke bemaza na hua
Hamne ki fikr jab bulaane ki
Unko soojhi kisi bahaane ki
Ab suni hai jo ghar lutaane ki
Hai khabar garm un ke aane ki
Aaj hi ghar mein boriya na hua
-Mirza Ghalib/ Unknown
कम मरज़ ही मगर ज़रा न हुआ
मुझपे अहसाँ तबीब का न हुआ (तबीब = उपचारक, चिकित्सक)
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ (मिन्नत-कश-ए-दवा = दवा का आभारी)
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
दे ख़ुदा रहम इन हबीबों को (हबीब = मित्र, दोस्त, प्रिय)
के जलाएँ न बदनसीबों को
चलके सुन लो अलग जो सुनते हो
जमा करते हो क्यों रक़ीबों को (रक़ीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी, प्रेमक्षेत्र का प्रतिद्वंदी)
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ (गिला = शिकायत, उलाहना)
जान तावत ही में खपाई थी (तावत = उस अवधि तक, उस सीमा या हद तक, वहाँ तक)
कुछ ख़ुदी थी न ख़ुदनुमाई थी (ख़ुदनुमाई = अभिमानी/ घमंडी होने का भाव)
सर था, सजदा था, जब्बासाई थी (जब्बासाई = बंदगी के दौरान सर को जमीन पर टिकाना)
क्या वह नमरूद की ख़ुदाई थी (नमरूद = एक बादशाह जो अपनेआप को ख़ुदा कहता था)
बन्दगी में मिरा भला न हुआ
ढूँढता था वो इक न इक तरक़ीब
के मज़े हों तेरे लबों के नसीब
तू न समझे तो है ये बात अजीब
कितने शीरीं हैं तेरे लब, कि रक़ीब (शीरीं = मीठे), (लब = होंठ)
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ
हमने की फ़िक्र जब बुलाने की
उनको सूझी किसी बहाने की
अब सुनी है जो घर लुटाने की
है ख़बर गर्म उन के आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ (बोरिया = चटाई)
-मिर्ज़ा ग़ालिब/ नामालूम
इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:
हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ
(ख़ंजर-आज़मा = ख़ंजर आज़माने/ चलाने वाला)
जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ
ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवा न हुआ
(रवा = जारी)
रहज़नी है कि दिलसितानी है
ले के दिल दिलसितां रवाना हुआ
(रहज़नी = लूटमार, डकैती), (दिलसितां = माशूक़), (दिलसितानी = माशूक़ी)
कुछ तो पढ़ये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब ग़ज़लसरा न हुआ
(ग़ज़लसरा = ग़ज़ल सुनाने वाला)
https://www.youtube.com/watch?v=uPzmVo-j5GM&fbclid=IwAR39b1bMK0jaW1EfoXfVw7B9aoHMqxNc_1a6jXcCu28B4g6K7FHBdC-DiV0
Yoon to mera ilaaj kya na hua
Kam maraz hi magar zaraa na hua
Mujhpe ahsaan tabeeb ka na hua
Dard minnat-kash-e-dawa na hua
Main na achcha hua, buraa na hua
De Khuda reham in habeebon ko
Ke jalaayen na badnaseebon ko
Chalke sun lo alag jo sunte ho
Jamaa karte ho kyon raqibon ko
Ik tamasha hua gila na hua
Jaan taawat hi mein khapaai thi
Kuch khudi thi na khudnumaai thi
Sar tha, sajda tha, jabbasaai thi
Kya wo namarood ki khudai thi
Bandagi mein mera bhala na hua
Dhoondhta tha wo ik na ik tarqeeb
Ke mazen hon tere labon ke naseeb
Tu na samjhe to hai ye baat ajeeb
Kitne shirin hain tere lab, ke raqeeb
Galiyaan kha ke bemaza na hua
Hamne ki fikr jab bulaane ki
Unko soojhi kisi bahaane ki
Ab suni hai jo ghar lutaane ki
Hai khabar garm un ke aane ki
Aaj hi ghar mein boriya na hua
-Mirza Ghalib/ Unknown
https://www.youtube.com/watch?v=q0maPL47OMQ
ReplyDeleteThank you!
Deleteबहुत बहुत शानदार
ReplyDeleteLove You Very Much Respected Jagjit Sahab Ji 🙏🙏😊
Any idea who the unknown poet who wrote additional shers in this and when were they added
ReplyDeleteExactly what I'm interested in knowing too. please tell me who wrote these matching couplets before Ghalib actual shairs.
DeleteI think this is all written by the legend Mirza Ghalib. some sher are hard to sing because of tune or rhythm. Even the Ghalib's gazal hazaron khwayeshein aisi have additional sher not part of ghazal sung by jagjit singh in his gazal.
DeleteThe blue ones are by Gulzar, the black ones are by Ghalib
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