फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था...
जगजीत जी के प्रशंसकों में मैडम नूरजहाँ भी बड़ी प्रशंसक थी...
सन १९७८ अप्रैल-मई,जगजीत जी केनेडा और अमेरिका के लाइव कंसर्ट्स के दौरे पर थे,उन्ही दिनों नूरजहाँ भी अमेरिका में थी और मई के अंत में न्यूयॉर्क पहुँचने वाली थी और जगजीत जी को सामने बैठ के सुनना चाहती थी,जगजीत जी की एक निजी महफ़िल लॉन्ग-आइलैंड में थी,महफ़िल शुरू हुई थी और जगजीत जी ग़ज़ल गा रहे थे तभी मैडम नूरजहाँ आ पहुंची,उन्हें देख जगजीत जी ने ग़ज़ल बीच में छोड़ फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ में नूरजहाँ का गाया गाना ‘आवाज़ दे कहाँ है’ गाना शुरू कर दिया...
नूरजहाँ के आते ही महफ़िल चौंधियां गई,उस समय वे लगभग ५० वर्ष थी लेकिन उनके व्यक्तित्व में वही ख़ूबी थी जो सौन्दर्य को सहज स्पर्श देती है..झिलमिलाती सफ़ेद साड़ी,साज सज्जा,उनका आना,मिलना,मुस्कराहट और बोलने का अंदाज़ असाधारण थे...
नूरजहाँ जगजीत सिंह के सामने बैठ गई,जगजीत जी ने ग़ज़ल छेड़ी ‘फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था,सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था...’
जगजीत जी का उन दिनों ये अंदाज़ था कि जब वो गाते थे तो आँखे बंद कर लिया करते थे,वे दो घंटे तक गाते रहे उसमे ज्यादातर नूरजहाँ की फ़रमाईशी ग़ज़लें थी.वे गाते तो उनकी आवाज़ के जादू में नूरजहाँ की नज़र उनके चेहरे पर टिकी रहती..
महफ़िल ख़त्म हुई तो नूरजहाँ जगजीत जी से कहने लगी “ बुरा न माने तो एक बात कहूं’’ जगजीत जी मुस्कुराते हुए बोले “आप हमारी सीनियर आर्टिस्ट है जो मर्ज़ी है कहिये’’
नूरजहाँ बोली “गायक और श्रोता का रिश्ता आशिक़ और माशूक़ जैसा होता है, श्रोताओं की ये ख़्वाहिश होती है कि गायक जब गाये तो उनकी नज़रों से नज़रें मिला कर गाये, मैं भी इसी उम्मीद से सामने बैठी थी, जब आप ‘फ़ासले ऐसे भी होंगे’ गा रहे थे मैं सोच रही थी आप मुझे सुना रहे है, आप स्वयं सोचिये जब आप आँख बंद कर लिया करते थे तो मुझे कितनी मायूसी होती होगी’’
ये अपनत्व और प्यार भरे गिले अब कहाँ...
मनोज कश्यप जी के सौजन्य से
साभार - सुरों के सौदागर
http://jagjitandchitra.blogspot.com/2015/01/faasle-aise-bhi-honge-ye-kabhi-socha-na.html
जगजीत जी के प्रशंसकों में मैडम नूरजहाँ भी बड़ी प्रशंसक थी...
सन १९७८ अप्रैल-मई,जगजीत जी केनेडा और अमेरिका के लाइव कंसर्ट्स के दौरे पर थे,उन्ही दिनों नूरजहाँ भी अमेरिका में थी और मई के अंत में न्यूयॉर्क पहुँचने वाली थी और जगजीत जी को सामने बैठ के सुनना चाहती थी,जगजीत जी की एक निजी महफ़िल लॉन्ग-आइलैंड में थी,महफ़िल शुरू हुई थी और जगजीत जी ग़ज़ल गा रहे थे तभी मैडम नूरजहाँ आ पहुंची,उन्हें देख जगजीत जी ने ग़ज़ल बीच में छोड़ फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ में नूरजहाँ का गाया गाना ‘आवाज़ दे कहाँ है’ गाना शुरू कर दिया...
नूरजहाँ के आते ही महफ़िल चौंधियां गई,उस समय वे लगभग ५० वर्ष थी लेकिन उनके व्यक्तित्व में वही ख़ूबी थी जो सौन्दर्य को सहज स्पर्श देती है..झिलमिलाती सफ़ेद साड़ी,साज सज्जा,उनका आना,मिलना,मुस्कराहट और बोलने का अंदाज़ असाधारण थे...
नूरजहाँ जगजीत सिंह के सामने बैठ गई,जगजीत जी ने ग़ज़ल छेड़ी ‘फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था,सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था...’
जगजीत जी का उन दिनों ये अंदाज़ था कि जब वो गाते थे तो आँखे बंद कर लिया करते थे,वे दो घंटे तक गाते रहे उसमे ज्यादातर नूरजहाँ की फ़रमाईशी ग़ज़लें थी.वे गाते तो उनकी आवाज़ के जादू में नूरजहाँ की नज़र उनके चेहरे पर टिकी रहती..
महफ़िल ख़त्म हुई तो नूरजहाँ जगजीत जी से कहने लगी “ बुरा न माने तो एक बात कहूं’’ जगजीत जी मुस्कुराते हुए बोले “आप हमारी सीनियर आर्टिस्ट है जो मर्ज़ी है कहिये’’
नूरजहाँ बोली “गायक और श्रोता का रिश्ता आशिक़ और माशूक़ जैसा होता है, श्रोताओं की ये ख़्वाहिश होती है कि गायक जब गाये तो उनकी नज़रों से नज़रें मिला कर गाये, मैं भी इसी उम्मीद से सामने बैठी थी, जब आप ‘फ़ासले ऐसे भी होंगे’ गा रहे थे मैं सोच रही थी आप मुझे सुना रहे है, आप स्वयं सोचिये जब आप आँख बंद कर लिया करते थे तो मुझे कितनी मायूसी होती होगी’’
ये अपनत्व और प्यार भरे गिले अब कहाँ...
मनोज कश्यप जी के सौजन्य से
साभार - सुरों के सौदागर
http://jagjitandchitra.blogspot.com/2015/01/faasle-aise-bhi-honge-ye-kabhi-socha-na.html
शुक्रिया दीपांकर जी🙏
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